1. सेवा से मृत्यु: क्या यह संभव है?
प्रश्न: क्या किसी जीव की सेवा करने से उसकी मृत्यु हो सकती है? क्या मैं मनहूस हूं?
महाराज जी का उत्तर:
सेवा से किसी की मृत्यु नहीं होती। अगर किसी ने सेवा की और जीव मर गया, तो इसका अर्थ यह नहीं कि सेवा कारण बनी। मृत्यु तब ही आती है जब आत्मा की आयु पूर्ण होती है। चाहे कोई अमृत भी पिला दे, वह जीव नहीं बचेगा। इसलिए ऐसी बातों को मन में बैठाने से दुःख और अवसाद जन्म लेता है।
“जितनी आयु विधना ने लिख दी, उतनी ही रहेगी – न एक रत्ती घटे, न बढ़े।”
2. गृहस्थ रहते हुए मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो?
प्रश्न: सांसारिक बंधनों में रहते हुए मोक्ष कैसे पाएँ?
महाराज जी का उत्तर:
बंधनों में रहकर भी मोक्ष संभव है — यदि आप प्रेम, सेवा और नाम-जप के साथ कर्तव्य निभाते हैं। केवल परिवार से प्रेम करना ‘बंधन’ है, लेकिन पूरे समाज में प्रभु का भाव देखकर प्रेम करना ‘मोक्ष का मार्ग’ है।
“गृहस्थ रहकर भी यदि नाम-जप करें, सत्संग सुनें, और धर्मयुक्त आचरण करें, तो मोक्ष निश्चित है।”
3. जीवन में समस्याओं का कारण क्या है?
प्रश्न: मैंने किसी का बुरा नहीं किया, फिर भी कष्ट क्यों आते हैं?
महाराज जी का उत्तर:
यह आपके पिछले जन्मों के कर्म हैं। जैसे पिछली फसल बाजरा थी, अब गेहूं बोया है, लेकिन अभी तो बाजरा ही मिलेगा। इसी प्रकार, पूर्व के पापों का फल आज भोगना पड़ता है, भले ही वर्तमान में आप धर्म पर हों।
“धैर्यपूर्वक नाम-जप करते हुए कष्ट भोगो, और आगे पाप मत करो — भविष्य सुंदर होगा।”
4. क्या किसी भी भगवान के नाम से भगवतप्राप्ति हो सकती है?
प्रश्न: क्या राधा, कृष्ण, शिव, राम — किसी भी नाम से भगवान की प्राप्ति संभव है?
महाराज जी का उत्तर:
हाँ, पक्का!
जिस नाम में श्रद्धा हो, उसी नाम का स्मरण करो। सभी नाम प्रभु के हैं और सभी से भगवत प्राप्ति संभव है।
“राम, राधा, शिव, दुर्गा — कोई भी नाम जपो, प्रेम से जपो — प्रभु मिलेंगे।”
5. अशांत मन को कैसे शांति मिले?
प्रश्न: मेरा मन बहुत अशांत रहता है — क्या करूँ?
महाराज जी का उत्तर:
मन की अशांति का मूल कारण है — हमारे भीतर जमा हुआ पाप। वह नेगेटिव सोच उत्पन्न करता है। इसका नाश केवल प्रभु-नाम से होता है।
“भगवान का नाम — सर्वपाप प्रणाशनम। नाम ही भीतर की दवा है।”
6. भगवदाकार वृत्ति कैसे उत्पन्न हो?
प्रश्न: भगवदाकार वृत्ति कैसे बने?
महाराज जी का उत्तर:
बार-बार भजन करने से जब हृदय में आनंद आता है, तो मन प्रभु में स्थिर होने लगता है। वही भगवदाकार वृत्ति है। नाम को ही सुनो, देखो, बोलो, चिंतन करो — मन स्वयं भगवतस्वरूप हो जाएगा।
“रचना, पालन और संहार — सब भगवान की लीला है। उसमें समता लाओ।”
7. आत्मविश्वास और अहंकार: भक्त का संतुलन
प्रश्न: भक्ति करते हुए आत्मविश्वास बना रहे, लेकिन अहंकार न आए — कैसे?
महाराज जी का उत्तर:
भक्ति ही विश्वास को जन्म देती है। जब अनुभव होता है कि केवल भगवान ने ही हमारी सहायता की, तब विश्वास दृढ़ होता है। लेकिन साथ में यह भी जानो कि कुछ भी हमारा नहीं — सब उन्हीं का है।
“भक्ति से विश्वास बढ़ता है, और अहंकार मिटता है।”
8. संत की अनुपस्थिति में कौन मार्गदर्शन करेगा?
प्रश्न: जब आप (महाराज जी) प्रत्यक्ष नहीं रहेंगे, तो हमें कौन संभालेगा?
महाराज जी का उत्तर:
संतों के वचन, उनकी वाणी — यही गुरु हैं। शरीर नाशवान है, लेकिन उनके शब्द अमर हैं। उन वचनों को जीवन में उतारो, वही तुम्हारे पथ-प्रदर्शक बनेंगे।
“शरीर न रहेगा, पर हमारा वचन तुम्हारे साथ रहेगा।”
9. दूसरों के कष्ट को देखकर कैसा भाव रखें?
प्रश्न: किसी के दुख को देखकर हमें दुःख होता है — क्या प्रार्थना से वह दुख कम हो सकता है?
महाराज जी का उत्तर:
किसी के प्रारब्ध को मिटाया नहीं जा सकता, लेकिन उसे सहने की शक्ति की प्रार्थना की जा सकती है।
हम सेवा कर सकते हैं — औषधि, भोजन, सहयोग दे सकते हैं — लेकिन प्रारब्ध भोगना ही पड़ेगा।
“भगवान से प्रार्थना करो कि वह सहन करने की सामर्थ्य दें — यही सच्ची करुणा है।”
10. यदि मानव जन्म दुर्लभ है तो फिर मोक्ष क्यों?
प्रश्न: मानव जीवन दुर्लभ है — फिर इसका अंत क्यों? मोक्ष क्यों?
महाराज जी का उत्तर:
मनुष्य जीवन इसलिए दुर्लभ है क्योंकि यहीं से भगवत प्राप्ति संभव है। देवता भी भजन नहीं कर सकते — वे केवल पुण्य भोगते हैं। लेकिन मनुष्य साधना कर सकता है, भजन कर सकता है, और मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
“मनुष्य शरीर — साधन धाम है। यहीं से मोक्ष का द्वार खुलता है।”
🪔 Credit
यह लेख संत श्री प्रेमानंद जी महाराज के एकान्तिक वार्तालाप प्रवचन की अमृत वाणी पर आधारित है।