🕉️ 1. कर्म में असफलता मिले तो क्या करें ?
प्रश्न: बार-बार असफलता मिल रही हो तो कर्म बदल दें या करते रहें?
उत्तर (प्रेमानंद महाराज जी):
महाराज जी कहते हैं कि यदि एक कर्म में निरंतर असफलता मिल रही हो, तो उसमें अटककर नहीं बैठ जाना चाहिए। पहले उस कार्य की त्रुटियों को पहचानो — अगर कमी स्पष्ट हो जाए, तो ठीक, नहीं तो दूसरा रास्ता पकड़ो। जीवन छोटा है, बहुत कीमती है। इसलिए कर्म बदलने से डरना नहीं चाहिए। संसार स्थिर नहीं है, बदलता रहता है — इसलिए हमें भी आगे बढ़ते रहना चाहिए। भक्ति का मार्ग तो एक रस है, पर कर्मक्षेत्र में बदलाव आवश्यक हो सकता है।
🕉️ 2. संकल्प टूट जाए तो कैसे सम्भलें ?
प्रश्न: संकल्प टूटने के बाद तुरंत पथ पर लौटने का व्यवहारिक तरीका क्या है?
उत्तर:
महाराज जी स्पष्ट कहते हैं — हृदय जलेगा, अपराध बनेगा।
बार-बार कसम लेना और तोड़ देना पुण्य का नाश करता है। इसलिए पहले कुछ समय तक अभ्यास करो, फिर जब लगता है कि अब संयम स्थिर हो गया है, तब संकल्प लो। जल्दीबाजी में संकल्प लेने से ही अपराध बनते हैं। संकल्प नहीं, बल्कि नाम-जप पर केंद्रित रहो — वही तुम्हें स्थिरता देगा।
🕉️ 3. दुख और निराशा में प्रभु का सहारा कैसे लें?
प्रश्न: जब भीतर निराशा हो और कोई सहारा न लगे तो क्या करें?
उत्तर:
महाराज जी कहते हैं — दूसरा कोई सहारा नहीं है, केवल भगवान।
दूसरों से अपनी पीड़ा कहने पर लोग उपहास कर सकते हैं, शोषण कर सकते हैं। केवल प्रभु तुम्हारी बात समझ सकते हैं। वो दिखते नहीं, लेकिन सुनते ज़रूर हैं। पूरी श्रद्धा से अपने मन की बात सिर्फ प्रभु को कहो। वही सच्चा मित्र है, जो गिरे हुए को उठाता है।
🕉️ 4. मंत्र जाप – बोलकर करें या चुपचाप?
प्रश्न: बोलकर मंत्र जाप करें या मानसिक?
उत्तर:
महाराज जी कहते हैं, मंत्र जाप उपांशु या मानसिक करना श्रेष्ठ है।
बोलने से मन लग सकता है, परंतु बोलना आवश्यक नहीं है। मन भटकेगा — लेकिन नाम-जप चलता रहे तो भी मंगल होता है। जैसे खाना खाते समय स्वाद न भी मिले, तो भी पेट भरता है — वैसे ही नाम का प्रभाव भीतरी होता है।
🕉️ 5. गुरु की आज्ञा और अहंकार कैसे छोड़े?
प्रश्न: गुरु की आज्ञा पालन में विफलता व अहंकार से कैसे निपटें?
उत्तर:
आज्ञा पालन दृढ़ निश्चय से होता है। यदि हम दृढ़ नहीं हैं, तो अपराध बनते हैं। अहंकार एक पूरा वृक्ष है — वह केवल बाहर से नहीं, भीतर से भी नष्ट करना होगा। गुरु की आज्ञा, शास्त्रों की मर्यादा और नाम-जप ही आत्म-निर्माण का आधार हैं। दोष-दर्शन से बचें, सबमें भगवान की भावना रखें।
🕉️ 6. दोष दर्शन से कैसे बचें?
प्रश्न: दोष दर्शन क्यों होता है, और कैसे दूर करें?
उत्तर:
जब तक हम क्रिया को देखते हैं, दोष दृष्टि बनती है। लेकिन यदि हम परम कारण देखें — यानी सबका कारण परमात्मा है — तब दोष समाप्त हो जाता है। जो दोष देखता है, वही दोषी बन जाता है। हमें केवल नाम-जप और सत्संग से दृष्टि पवित्र करनी है।
🕉️ 7. क्या सिर्फ नाम-जप से सब संभव है?
प्रश्न: क्या केवल नाम-जप से ही गुरु और इष्ट के सान्निध्य की अनुभूति हो सकती है?
उत्तर:
हां, यदि विश्वास हो, तो नाम-जप ही सबसे बड़ा साधन है।
पर जब तक पाप नष्ट नहीं होते, अनुभव नहीं होगा। इसलिए लगन और धैर्य जरूरी है। जैसे धन जमा करते हैं, वैसे नाम जमा करो — धीरे-धीरे पूर्व पाप भस्म होंगे और अनुभूति स्पष्ट होगी।
🕉️ 8. निंदा और दोष दर्शन रोकने का मार्ग
प्रश्न: दोष दर्शन और झूठ बोलना जैसे मानसिक पापों से कैसे बचें?
उत्तर:
कलयुग की प्रकृति ही दोष दर्शन, निंदा और असत्य बोलने को सहज बनाती है। परंतु इससे बचने के लिए केवल एक उपाय है — नाम-जप और सत्संग का पठन-मनन।
महाराज जी कहते हैं, हम क्रिया को नहीं, उसके कारण को समझें। तब ही दोष दृष्टि मिटेगी।
🕉️ 9. गर्भवती महिलाओं के व्रत और भक्ति का संतुलन
प्रश्न: क्या गर्भवती महिलाओं को निर्जला व्रत आदि करने चाहिए?
उत्तर:
नहीं। महाराज जी स्पष्ट कहते हैं कि गर्भस्थ शिशु का पोषण माता के भोजन से होता है। इसलिए निर्जला व्रत या उपवास नहीं करना चाहिए। उस अवस्था में सबसे बड़ा व्रत वही है — संतान का पोषण। भक्ति में संयम रखें लेकिन शरीर की आवश्यकता अनुसार खान-पान करें।
🕉️ 10. क्या महिलाएं हनुमान जी की आराधना कर सकती हैं?
उत्तर:
हां, महिलाएं हनुमान चालीसा पढ़ सकती हैं, भोग अर्पित कर सकती हैं, आरती कर सकती हैं।
बस उनके शरीर के अंग स्पर्श या बंधनवार आदि का निषेध है। वह भगवान हैं — उनका भाव से पूजन सभी कर सकते हैं।
🕉️ 11. समाज में गिरे हुए को कैसे संभालें?
उत्तर:
गिरे हुए को गिराना नहीं, सहयोग देना चाहिए।
महाराज जी कहते हैं, यदि कोई गलत आचरण छोड़कर संत के पास आ रहा है, तो उसे प्रोत्साहन मिलना चाहिए। उसे हाथ पकड़कर सही मार्ग दिखाना ही सबसे बड़ा पुण्य है।
🕉️ 12. सबसे बड़ा पुण्य क्या है?
उत्तर:
सबसे बड़ा पुण्य है — किसी एक व्यक्ति को अधर्म से हटाकर धर्म में लगाना।
दान, पूजा सब बाद में, पहले किसी को रास्ता दिखाओ। यही सच्चा सत्संग है।